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Reference: Recurrent Exodus of Minorities from East Pakistan and Disturbances in India: a Report to the Indian Commission of Jurists by its Committee of Enquiry, 1965. Published by: Purushottam Trikamdas, General Secretary, Indian Commission of Jurists, New Delhi, 1965, Appendices IV, p.354-372
जोगेंद्र नाथ मंडल का लियाकत अली खान को दिया गया त्यागपत्र:
यह पत्र अंग्रेज़ी की मूल प्रति का हिदी अनुवाद है:
पाकिस्तान सरकार के कानून और श्रम मंत्री जोगेंद्र नाथ मंडल का 8 अक्टूबर 1950 को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान को संबोधित करते त्यागपत्र का मूल पाठ
1. मैं अपने त्यागपत्र के दूरवर्ती और तात्कालिक कारणों को बयान करूं, इससे पहले लीग के साथ मेरे सहयोग की अवधि के दौरान हुई महत्वपरू्ण घटनाओं की एक संक्षिप्त पृष्ठभूमि देना उपयोगी हो सकता है। फरवरी 1943 में बंगाल के कुछ प्रमखु लीगी नेताओं द्वारा संपर्क कि ये जाने के बाद, मैं उनके साथ बंगाल विधानसभा में काम करने के लिए सहमत हो गया। मार्च 1943 में फ़ज़लुल हक सरकार गि रने के बाद, मैं, अनुसूचित जाति के 21 विधायकों की पार्टी के साथ, मुस्लिम लीग संसदीय दल के तत्का लीन नेता ख्वाजानज़ी मुद्दीन के साथ सहयोग करने के लिए सहमत हुआ, जिन्होंने अप्रैल 1943 में मंत्रिमंडल का गठन कि या। हमारा सहयोग कुछ विशिष्ट शर्तों के आधार पर था, जैसे कि मंत्रिमंडल में अनुसूचित जाति के तीन मंत्रियों को शामिल करना, अनुसूचित जातियों की शिक्षा के लिए वार्षिक आवर्ती अनुदान के रूप में पाँच लाख रुपये की राशि का अनुमोदन, और सरकारी सेवाओ में नियक्ति के मामले में सांप्रदायिक अनुपात नियम का अयोग्य परिपालन।
2.
इन शर्तों के अलावा, जिन मुख्य उद्देश्यों ने मुझे मुस्लिम लीग के साथ सहयोग करने के लिए प्रेरित किया, उसमें पहला यह था कि बंगाल में मुसलमानों
के आर्थिक हित सामान्यतः अनुसूचित जातियों के साथ समान थे। मुसलमानों में अधिकांश किसान और मजदूर थे, और इसलिए अनुसूचित जाति के सदस्य थे। मुसलमानों का एक वर्ग मछुआरों का था, जैसा कि अनुसूचित जाति यों का भी एक वर्ग था, और दूसरा यह कि अनुसूचित जाति और मुसलमान
दोनों ही शैक्षिक रूप से पिछड़े थे। मुझे समझाया गया कि लीग और उसकी सरकार के साथ मेरा सहयोग विधायी और प्रशासनिक उपायों के व्यापक पैमाने पर होगा जि ससे बंगाल की आबादी के विशाल हिस्से के पारस्परिक कल्या ण को बढ़ावा देने और निहित स्वार्थ व विशेषाधिकारों की बुनियाद को कम
करने के साथ, सांप्रदायि क शांति और सद्भाव का
कारण बनेगा। यहाँ यह उल्लेख कि या जा सकता है कि ख्वाजा नज़ीमुद्दीन ने अपने मंत्रिमंडल में तीन
अनुसूचित जाति के मंत्रियों को लिया और मेरे समुदाय के सदस्यों में से तीन को संसदीय सचिव नियुक्त किया।
सुहरावर्दी सरकार
3. मार्च 1946 में हुए आम चुनावों के बाद श्री एच.एस. सुहरावर्दी मार्च 1946 में लीग संसदीय दल के नेता बने और अप्रैल 1946 में लीग सरकार का गठन कि या। महासंघ के टि कट पर जीतने वाला मैं अनुसूचित जाति का एकमात्र सदस्य था। मुझे श्री सुहरावर्दी के मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था। कलकत्ता में मुस्लिम लीग द्वारा उस वर्ष के अगस्त माह के 16वें दि न को ‘सीधी कार्रवाई दिवस के रूप में मनाया गया। जैसा कि आप जानते हैं, इसके परिणामस्वरूप सर्वनाश हुआ। हिदंओुं ने लीग सरकार से मेरे त्यागपत्र की मांग की। मेरा जीवन संकट में था। मुझे लगभग हर दिन धमकी भरे पत्र मि लने लगे, लेकि न मैं अपनी नीति पर कायम रहा। इसके अलावा, मैंने अपने जीवन के जोखिम पर भी अपनी पत्रिका ‘जागरण के माध्यम से अनुसूचित जाति के लोगों से कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच खूनी झगड़े से खुद को दूर रखने की अपील जारी मैं इस तथ्य को कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार नहीं कर सकता कि मुझे आक्रोशित हिंदू भीड़ के प्रकोप से अपनी जाति के हिंदू पड़ोसि यों द्वारा बचाया गया था। कलकत्ता नरसंहार के बाद अक्टूबर 1946 में ‘नोआखली दंगा हुआ था। वहाँ, अनुसूचित
जातियों सहित हिदं ओुं की हत्या कर दी गयी और
सैकड़ों को इस्लाम में धर्मांतरित कर दि या गया। हिंदू महिलाओं
का बलात्का र और अपहरण कि या गया। मेरे समुदाय के सदस्यों को भी जान-माल का नुकसान हुआ। इन घटनाओं के तरुंत बाद, मनैं टिप्पे रा और
फेनी का दौरा कि या और कुछ दंगा प्रभावित क्षेत्रों
को दखेा। हिदंओुं के भयानक कष्टों ने मझु द:ुख से
भर दिया, लेकिन फिर भी मैंने मुस्लि म लीग के साथ
सहयोग की नीति जारी रखी। कलकत्ता हत्या कांड के तुरंत बाद, सुहरावर्दी सरकार के खिलाफ अविश्वास
प्रस्ताव लाया गया। केवल मेरे प्रयासों के कारण ही
अब तक कांग्रेस के साथ रहे विधानसभा के चार
एंग्लो -इंडि यन सदस्यों और चार अनुसूचित जाति के
सदस्यों का समर्थन प्राप्त कि या जा सका था, जिसके
बिना सरकार हार गयी होती
की।
4. अक्टूबर 1946 में, सबसे अप्रत्याशित रूप से श्री सुहरावर्दी के माध्यम से भारत की अंतरिम सरकार में एक सीट का प्रस्ताव मेरे पास आया। अपनी हिचकिचाहट से नि कलने और अपना अंतिम निर्णय लेने के लिए केवल एक घंटे का समय दि ये जाने के बाद, मैंने केवल इस शर्त के साथ प्रस्ताव को स्वीकार करने पर सहमति जतायी कि यदि मेरे नेता डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने मेरे कदम को अस्वीकार कर दिया, तो मुझे त्या गपत्र देने की अनुमति दी जानी चाहिए। हालांकि, सौभाग्य से, मुझे लंदन से भेजे गये टेलीग्राम में उनकी स्वी कृति मिल गयी। कानून मंत्री का कार्यभार संभालने के लिए दिल्ली रवाना होने से पहले, मैंने बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री सुहरावर्दी को उनके मंत्रिमंडल में मेरे स्थान पर दो मंत्रियों को लेने और अनुसूचित केस फेडरेशन समूह से दो संसदीय सचिवों को नियुक्त करने के लिए राजी कर लिया।
5. मैं 1 नवंबर, 1946 को अंतरिम सरकार में शामिल हुआ। लगभग एक महीने के बाद जब मैंने कलकत्ता का दौरा किया, तो श्री सुहरावर्दी ने मुझे पूर्वी बंगाल के कुछ हिस्सों, वि शेष रूप से गोपालगंज उप-मंडल में, जहाँ नामशूद्र बहुत अधिक मात्रा में थे, अत्यधिक सांप्रदायिक तनाव से अवगत कराया। उन्होंने मुझसे उन क्षेत्रों का दौरा करने, मुसलमानों और नामशूद्रों की सभाओं को संबोधित करने का अनरुोध किया। तथ्य यह था कि उन क्षेत्रों में नामशूद्रों ने प्रतिशोध की तैयारी कर ली थी। मैंने भारी भीड़ वाली लगभग दर्जन भर सभाओं में भाग लि या। परिणाम यह हुआ कि नामशूद्रों ने प्रति शोध का विचार छोड़ दि या। इस प्रकार एक अपरिहार्य खतरनाक सांप्रदायिक उपद्रव टल गया।
6. कुछ महीनों के बाद, ब्रिटिश सरकार ने भारत के वि भाजन के लिए कुछ प्रस्तावों को शामिल करते हुए अपना 3 जून का वक्तव्य (1947) जारी कि या। इससे पूरा देश, वि शेष रूप से पूरा गैर-मुस्लि म भारत भौचक रह गया। सच्चाई के वास्ते मुझे यह स्वी कार करना चाहिए कि मैंने मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान की मांग को हमेशा मोलभाव का एक दाँव माना था। हालाँकि मैं पूरी ईमानदारी से महसूस करता था कि पूरे भारत के संदर्भ में मुस्लि मों के पास उच्च वर्ग के हिंदू धर्मवाद के खि लाफ शिकायत का वैध कारण था, लेकि न मेरा बहुत दृढ़ विचार था कि इसके बावजूद पाकिस्तान का निर्माण कभी भी सांप्रदायिक समस्या का समाधान नहीं करेगा। इसकी बजाय, यह सांप्रदायिक घृणा और कड़वाहट को बढ़ायेगा। इसके अलावा, मैंने यह भी दोहराया कि यह पाकिस्तान में मुसलमानों की स्थिति में सुधार नहीं करेगा। देश के वि भाजन के अपरिहार्य परिणाम, यदि स्थायी नहीं, तो भी दोनों देशों की मेहनतकश जनता की गरीबी, अशिक्षा और दयनीय स्थिति के रूप में लंबे समय तक रहेंगे। मैंने आशंका जतायी कि पाकिस्तान दक्षिण-पूर्व एशि या के सबसे पिछड़े और अविकसित देशों में शुमार होने की ओर उन्मुख हो सकता है।
लाहौर प्रस्ताव
7. मुझे यह स्पष्ट करना चाहिए कि मैंने सोचा कि पाकिस्तान को शरीयत और इस्लाम के हुक्म और फार्मूले के आधार पर पूर्ण रूप से ‘इस्लामि क’ राज्य के रूप में विकसित करने का प्रयास किया जायेगा, जैसा कि वर्त मान में कि या गया है। मैंने कल्पना की कि 23 मार्च, 1940 को लाहौर में मुस्लि म लीग के पारित प्रस्ताव पर विचार कि ये जाने के बाद सभी आवश्यक तरीकों से इसे स्थापित कि या जायेगा। उस प्रस्ताव में यह भी कहा गया था कि (I) “भौगोलि क रूप से नि कटवर्ती क्षेत्रों को ऐसे क्षेत्रों में सीमांकित किया जाये, जि न्हें इस तरह के क्षेत्री य पुन: समायोजन करके गठि त कि या जाना चाहिए, जो आवश्यक हो सकता है, यह कि भारत के उत्तर-पश्चिमी और पूर्वी क्षेत्रों के जिन क्षेत्रों में मुस्लिम बहुसंख्यक हैं, उन्हें स्वतंत्र राज्यों के तौर पर गठन करने के लिए एकत्रित किया जाना चाहिए, जिसमें घटक इकाइयाँ स्वायत्त और संप्रभु होंगी” और (II) “इन इकाइयों में अल्पसंख्यकों के धार्मि क, सांस्कृति क, राजनीति क, प्रशासनि क और अन्य अधिकारों और उनके हितों के संरक्षण के लि ए और उनसे विचार-वि मर्श करके संविधान में पर्या प्त, प्रभावी और अनिवार्य सुरक्षा उपायों को वि शेष रूप से प्रदान कि या जाना चाहिए।”इस सूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया था (क) कि उत्तर पश्चिमी और पूर्वी मुस्लि म क्षेत्रों को दो स्वतंत्र राज्यों में गठि त कि या जाना चाहिए, (ख) कि इन राज्यों की घटक इकाइयाँ स्वायत्त और संप्रभु होनी चाहिए, (ग) कि अल्पसंख्यकों के अधिकारों के साथ-साथ हितों के संदर्भ में और उनके जीवन के हर क्षे त्र में उन्हें भरोसा दि लाना चाहिए, और (घ) कि इन संबंधों में खुद अल्पसंख्यकों के परामर्श से संवैधानि क प्रावधान कि ये जाने चाहिए. मुझे इस प्रस्ताव पर और 11 अगस्त 1947 को संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में क़ायदे-ए-आज़म मोहम्मद अली जि न्ना के कथन पर वि श्वास था कि उन्होंने हिंदू और मुसलमान, दोनों को पाकिस्ता नी बताते हुए उनके साथ एक समान व्यवहार का आश्वासन दि या था। तब धर्म के आधार पर लोगों को पूर्ण रूप से मुस्लि म नागरिकों और जि म्मीओंको इस्लामि क राज्य और उसके मुस्लि म नागरिकों के तौर पर निरंतर बांधे रखने के आधार पर बाँटने का कोई सवाल ही नहीं था। आपकी जानकारी के लि ए इनमें से हर एक संकल्प को और क़ायदे आज़म की इच्छा ओं और भावनाओं की परू्ण अवहले ना और अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा और अपमान के लि ए आपकी मंजूरी के साथ स्पष्ट रूप से उल्लंघन कि या जा रहा है।
बंगाल का विभाजन
8. इस संबंध में यह भी उल्लेख कि या जा सकता है कि मैंने बंगाल के विभाजन का विरोध किया था।
इस संबंध में एक अभियान शुरू करने में मुझे न
केवल सभी पक्षों के जबरदस्त प्रतिरोध, बल्कि
अकथनीय दुर्व्यवहार, अपमान और तिरस्कार का
भी सामना करना पड़ा। बड़े अफसोस के साथ, मैं उन
दिनों को याद करता हूँ, जब इस भारत-पाकिस्तान उप-महाद्वीप के 32 करोड़ हिंदू मेरे खिलाफ हो गये और मझुे हिदंओुं और हिदंू धर्म का दशु्मन करार
दिया, लेकि न मैं पाकिस्तान के प्रति अपनी निष्ठा पर
अविचलित और अटल रहा। यह आभार प्रकट करने
की बात है कि पाकिस्ता न के 70 लाख अनुसूचित
जाति के लोगों ने मेरी अपील पर तत्पर और उत्साही
प्रतिक्रि या दी। उन्होंने मुझे अपना अत्याधिक
समर्थन, सहानुभूति और प्रोत्साह न दिया।
9.
14 अगस्त, 1947 को पाकिस्तान की स्थापना के बाद आपने पाकि स्ता न मंत्रिमंडल का गठन
किया, जिसमें मुझे शामिल किया गया और ख्वाजा नजीमुद्दीन ने पूर्वी बंगाल के लिए एक
प्रावैधानि कमंत्रिमंडल का गठन किया। 10 अगस्त को, मैंने कराची में ख्वाजा नज़ीमुद्दीन
से बात की थी और उनसे पूर्वी बंगाल मंत्रिमंडल में अनुसूचित जाति के 2 मंत्रियों को
लेने का आग्रह कि या। उसने यह काम कुछ समय बाद करने का वादा कि या। इस संबंध में बाद
में जो हुआ, वह आपके, ख्वाजा नज़ीमुद्दीन और पूर्वी बंगाल के वर्त मान मुख्यमंत्री
श्री नुरुल अमीन के साथ सिर्फ अप्रिय और निराशाजनक बातचीत का रिकॉर्ड था। जब मुझे एहसास
हुआ कि ख्वाजा नज़ीमुद्दीन मुद्दे को इस या उस बहाने से टाल रहे थे, तो मैं लगभग अधीर
और उत्तेजित हो गया। मैंने पाकिस्तान मुस्लिम लीग और इसकी पूर्वी बंगाल शाखा के अध्यक्षों
से इस विषय पर आगे चर्चा की। अंतत: मैं मामला आपके संज्ञान में लाया। आपने अपने आवास
पर मेरी उपस्थिति में ख्वाजा नज़ीमुद्दीन के साथ इस विष य पर चर्चा की थी। ख्वाजा नज़ी
मुद्दीन ढाका लौटकर अनुसूचित जाति का एक मत्रीं बनाने पर सहमत हुए। चकिँू मैं पहले
ही ख्वाजा नजीमुद्दीन के आश्वासन पर शंकाग्रस्त था, इसलि ए, मैं समय-सीमा के बारे में निश्चित होना
चाहता था। मैंने जोर देकर कहा कि उन्हें इस संबंध
में एक महीने के भीतर कदम उठाना चाहिए, जिसमें
विफल रहने पर मुझे इस्ती फा देने की स्वतंत्रता होनी
चाहिए। आप और ख्वाजा नजीमुद्दीन दोनों ही शर्त
पर सहमत थे, लेकि न अफसोस! आपका शायद वह
मतलब नहीं था, जो आपने कहा। ख्वाजा नजीमुद्दीन
ने अपना वादा नहीं नि भाया। श्री नुरुल अमीन के
पूर्वी बंगाल के मुख्यमंत्री बनने के बाद, मैंने उनके
सामने फिर यह विषय उठाया। उन्होंने भी टालमटोल
की उसी पुरानी परिचित रणनीति का पालन किया।
जब 1949 में ढाका के आपके दौरे से पहले मैंने
इस मामले पर फि र से आपका ध्यान आकर्षित
किया, तो आप मुझे आश्वस्त कि या कि पूर्वी बंगाल में अल्पसंख्यक मंत्रियों को नि युक्त कि या जायेगा, और आपने मुझसे विचार के लि ए 2/3 नाम मांगे।
आपकी इच्छा के अनुसार, मैंने आपको पूर्वी बंगाल विधानसभा में फेडरेशन ग्रुप के बारे बताते हुए और तीन नामों का सुझाव देते हुए एक नोट भेजा। ढाका से आपकी वापसी पर जब मैंने पूछताछ की कि क्या हुआ, तो आप बहुत उदासीन दि खे और केवल यह टि प्पणी की कि : “नूरुल अमीन को दिल्ली से वापस आने दो”। कुछ दि नों के बाद मैंने फिर से इस बात को उठाया, लेकि न आपने मुद्दे को टाल दिया। तब मैं इस नि ष्कर्ष पर आने के लिए विवश
हुआ कि न तो आपका, न ही श्री नूरुल अमीन का
पूर्वी बंगाल मंत्रिमंडल में अनुसूचित जाति के कि सी
मंत्री को लेने का कोई इरादा है। इसके अलावा, मैं यह गौर कर रहा था कि श्री नुरुल अमीन और
पूर्वी बंगाल के कुछ लीगी नेता अनुसूचित जाति
महासंघ के सदस्यों के बीच विघ्न पैदा करने की
कोशि श कर रहे थे। मुझे ऐसा लगा कि मेरे नेतृत्व
और व्यापक लोकप्रियता को नुकसानदायक माना गया। पाकिस्तान के आमतौर पर अल्पसंख्यकों और वि शेष रूप से अनुसूचित जाति के हितों की रक्षा के लिए मेरे मुखर, सतर्क और ईमानदारी भरे प्रयास पर्ू वी बंगाल सरकार और कुछ लीगी नेताओं
के लिए
नाराजगी के विषय थे। इससे अविचलित रह कर, मैंने पाकिस्ता न के अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए अपना कड़ा रुख अपनाया।
कुछ घटनाएँ:
11. मुझे झकझोरने वाली पहली घटना गोपालगंज के पास दिघारकुल नामक गाँव में घटी जहाँ एक मुस्लि म की झूठी शि कायत पर स्थानीय नामशूद्रों पर क्रू र अत्याचार कि ये गये। तथ्य यह था कि नाव में जा रहे एक मुसलमान ने मछली पकड़ने के लिए अपना जाल फें कने का प्रयास कि या। इसी उद्देश्य के
लिए वहाँ पहले से ही मौजूद एक नामशूद्र ने अपने सामने जाल फें कने का वि रोध कि या। इसके बाद कुछ कहासुनी हुई और मुस्लि म नाराज हो गया और पास के मुस्लि म गाँव में गया और झूठी शिकायत की कि उस पर और उनकी नाव में बैठी एक महिला पर नामशूद्रों द्वारा हमला कि या गया। उस समय, गोपालगंज के एसडीओ नहर के रास्ते एक नाव से गुजर रहे थे, जि न्होंने बि ना कि सी जाँच के शिकायत को सच मान लिया और नामशूद्रों को दंडित करने के लिए सशस्त्र पुलि स को मौके पर भेजा। सशस्त्र पुलि स आ गयी और स्थानीय मुसलमान भी उनके साथ हो लिये। उन्होंने न केवल नामशूद्रों के कुछ घरों पर छापा मारा, बल्कि परुुषों और महिलाओं दोनों को बेरहमी से पीटा, उनकी संपत्तियों को नष्ट कर दिया और कीमती सामान उठा ले गये। एक गर्भवती महिला की बेरहमी से पिटाई से मौके पर ही उसका गर्भपात हो गया। स्थानीय प्रशासन की इस क्रू र कार्रवाई ने एक बड़े क्षे त्र में दहशत पैदा कर दी।
12.
पुलिस उत्पीड़न की दूसरी घटना 1949 के शुरुआती
दौर में बाड़ि साल जि ले के गौरनादी पुलि स स्टेशन क्षे त्र में घटी। यहाँ एक यूनि यन बोर्ड के सदस्यों के दो
समूहों के बीच झगड़ा हुआ। एक समूह जो पुलिस
की नजर में अच्छा था, उसने विरोधियों के खिलाफ
उनके कम्युनिस्ट होने की दलील पर साजि श रची।
पुलि स स्टेशन पर हमले के खतरे की सूचना पर, गौरनदी के ओसी ने मुख्या लय से सशस्त्र बलों को
भेजने का अनुरोध कि या। सशस्त्र बलों की मदद से
पुलि स ने तब इलाके में बड़ी संख्या में घरों पर छापा
मारा, यहाँ तक कि उन अनुपस्थित मालि कों के घरों
से भी मूल्यवन संपत्ति लेते गये, जो कम्युनिस्ट तो
दूर, राजनीति तक में कभी नहीं थे। एक बड़े इलाके
में भारी संख्या में लोगों को गि रफ्ता र कि या गया।
कई हाई इंग्लि श स्कूलों के शिक्ष कों और छात्रों
पर कम्युनि स्ट होने का संदेह कि या गया और उन्हें
अनावश्यक रूप से परेशान कि या गया। यह इलाका
मेरे पैतृक गाँव के बहुत करीब है, मुझे इस घटना
के बारे में बताया गया। मैंने जाँच के लिए जिला
मजिस्ट्रेट और एसपी को लि खा। स्थानीय लोगों के
एक वर्ग ने भी एसडीओ द्वारा जाँच के लि ए प्रार्थना
की। लेकि न कोई जाँच नहीं हुई। यहाँ तक कि जिले
के अधिकारियों को लि खे गये मेरे पत्रों का भी संज्ञान
नहीं लिया गया। तब मैं इस मामले को आपके समेत
पाकि स्ता न के सर्वोच्च अधिकारियों के संज्ञान में
लाया, लेकि न कोई फायदा नहीं हुआ।
सेना के लिए महिलाएँ:
13. निर्दोष हिदंओुं
विशषे रूप से सि लहट जिले
के हबीबगढ़ के अनुसूचित जाति
के लोगों
पर पुलिस और सेना द्वारा
कि ये गये अत्याचार का वर्णन अपक्े षित है निर्दोष परुु
षों और महिलाओं को क्रू
रतापर्वू क प्रताड़ि त कि या गया, कु छ महिलाओं से बलात्कार कि या गया,
उनके घरों
पर छापा
मारा गया। पुलिस
और स्थानीय
मुसलमानों द्वारा
संपत्तियाँ
लूटी गयीं। क्षे
त्र में सैन्य पिकेट
तैनात थे। सेना ने न केवल इन लोगों पर अत्याचार कि या और हिंदू घरों से
जबरन सामान
छीन लि ये, बल्कि
रात के समय शिवि
र में सैनि कों की जिस्मानी इच्छा को पूरा करने
के लिए हिदं ओु को अपनी
महिलाएँ भजे ने के लि ए भी मजबूर
कि या गया। यह तथ्य भी मैं आपके
ध्या न में लाया।
आपने मुझे
इस मामले
पर एक रिपोर्ट का आश्वासन दि या, लेकि
न दुर्भा
ग्य से कोई रिपोर्ट
नहीं आ रही थी।
14. इसके बाद राजशाही जिले के नाचोल में घटना घटी, जहाँ कम्युनि स्टों के दमन के नाम पर न केवल पुलि स ने, बल्कि पुलि स के सहयोग से स्थानीय मुसलमानों ने भी हिदं ओु ंपर अत्याच ार कि या और उनकी संपत्ति लूट ली। तब संथाल सीमा पार कर पश्चिम बंगाल आ गये थे। उन्होंने मुसलमानों और पुलि स द्वारा बेरहमी से कि ये अत्याचारों की कहानि याँ सुनायीं।
15. 20 दि संबर, 1949 को खुलना जिले के मोलरहाट पुलिस स्टेशन क्षेत्र के तहत कलशीरा में एक घटना के जरिये एक संवेदनाहीन और सोची-समझी क्रूरता का उदाहरण प्रस्तुत कि या गया। हुआ यह कि देर रात चार कांस्टेबलों ने कुछ कथि त कम्युनिस्टों की तलाश में कलशीरा के जोयदेव ब्रह्मा के घर पर छापा मारा। पुलि स की भनक मि लने पर, आधा दर्ज न युवा, जि नमें से कुछ कम्युनि स्ट हो सकते हैं, घर से भाग गये। पुलि स कांस्टेबल ने घर में घुसकर जोयदेव ब्रह्मा की पत्नी के साथ मारपीट की, जि सके चिल्ला ने की आवाज से घर से भागे उसके पति और उसके कुछ साथी विव श हो गये। वे हताश होकर फिर से घर में आये, जहाँ केवल 4 कांस्टेबल एक बंदूक के साथ मि ले। संभवत: इससे उत्साहित उन यवुाओं ने एक सशस्त्र कांस्टेबल पर जानलेवा हमला कि या था जि सकी मौके पर ही मौत हो गयी। युवकों ने तब एक और कांस्टेबल पर हमला कि या जबकि दो अन्य भाग गये और उन्होंने अलार्म बजा दि या जि स सुनकर कुछ पड़ोसी उनके बचाव में आ गये। चकिँू घटना सर्योू दय से पहले अधं रेा रहने पर हुई थी, इसलिए ग्रामीणों के आने से पहले हमलावर शव लेकर भाग गये। अगले दि न दोपहर में खुलना के एसपी सैन्य टुकड़ी और सशस्त्र पुलि स के साथ मौके पर पहुँचे। इस बीच, हमलावर भाग गये और बुद्धिमान पड़ोसी भी भाग गये, लेकि न अधिकांश ग्रामीण अपने घरों में बने रहे क्योंकि वे बि ल्कुल निर्दोष थे और इस घटना के परिणाम को भाँपने में वि फल रहे। इसके बाद एसपी, सैन्य टुकड़ी और सशस्त्र पुलि स ने पूरे गाँव के निर्दोष लोगों को बेरहमी से पीटना शुरू कर दि या, पड़ोसी मुस्लि मों को उनकी संपत्ति लूटने के लि ए प्रोत्साहित कि या। बहुत से लोग मारे गए और परुु षों और महिलाओंको जबरन धर्मांतरित कि या गया। घर में दवे प्रति माओंको तोड़ दि या गया और पूजा स्थलों को उजाड़ दि या गया और नष्ट कर दि या गया। कई महिलाओं के साथ पुलि स, सेना और स्थानीय मुसलमानों ने बलात्कार कि या। इस प्रकार एक प्रामाणिक नर्क न केवल भारी आबादी वाले 1-1/2 मील लंबे कलशीरा गाँव में, बल्कि कई पड़ोसी नामशूद्र गाँवों में भी पसरा था। कलशीरा गाँव पर प्रशासन ने कभी भी कम्युनि स्ट गतिविधियों का स्थल होने का संदेह नहीं कि या था। कलशीरा से 3 मील दूर स्थि त झालारंगा नामक एक अन्य गाँव को कम्युनि स्ट गतिविधियों का कें द्र माना जाता था। उस दि न पुलि स की एक बड़ी टुकड़ी ने कथि त कम्युनि स्टों की तलाश में इस गाँव पर छापा मारा था, जि नमें से कई भाग नि कले और कलशीरा गाँव के उक्त घर में शरण ली, जो उनके लि ए एक सुरक्षित स्थान माना जाता था।
16. मैंने 28 फरवरी 1950 को कलशीरा और एक या दो पड़ोसी गाँवों का दौरा कि या। खुलना के एसपी और जि ले के कुछ प्रमुख लीगी नेता मेरे साथ थे। जब मैं कलशीरा गाँव में आया, तो मैंने उस स्थान पर सिर्फ और सिर्फ उजाड़ और खंडहर पाया। एसपी की उपस्थिति में मुझे बताया गया कि इस गाँव में 350 घर थे, इनमें से केवल तीन को बख्शा गया था और बाकी को ढहा दि या गया था। नामशूद्रों की देसी नावें और मवेशी, सबकुछ लूट लि या गया था। मैंने इन
तथ्यों को मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव और पूर्वी बंगाल के पुलि स महानि रीक्षक और आपको सूचित कि या।
17. इस संबंध में उल्लेख कि या जा सकता है कि इस घटना की खबर पश्चिम बंगाल प्रेस में प्रकाशित हुई थी और इसने वहाँ के हिदंओुं में कु छ अशांति पैदा की। कलशीरा के बहुत से पीड़ि त, पुरुष और महिलाएँ, दोनों बेघर और निराश्रित होकर कलकत्ता भी आये थे और उन्होंने अपनी यातना की कहानियाँ सुनायीं, जिसके परिणामस्वरू प पश्चिम बंगाल में जनवरी के अंति म समय में कुछ सांप्रदायिक झड़पें हुईं|
फरवरी दंगे के कारण:
18. यह गौर कि या जाना चाहिए कि कलशीरा में हुई घटनाओ के एक प्रकार के प्रति शोध के रूप में पश्चिम बंगाल में सांप्रदायि क दंगे की चंद कहानियां पूर्वी बंगाल प्रेस में अति रंजित रूप में प्रकाशित हुई थीं। फरवरी 1950 के दूसरे सप्ताह में जब पूर्वी बंगाल विधानसभा का बजट सत्र शुरू हुआ, तो कांग्रेस के सदस्यों ने कलशीरा और नाचोल में पैदा हुई स्थिति पर चर्चा के लि ए दो स्थगन प्रस्ताव पेश करने की अनुमति मांगी, लेकि न प्रस्ताव ठुकरा दि ये गये। इसके वि रोध में कांग्रेस सदस्य विधानसभा से बाहर चले गये। विधानसभा के हिंदू सदस्यों की इस कदम ने न के वल मत्रिं यों बल्कि प्रां त के मस्लिुम नेताओं और अधिकारियों को भी नाराज कर दिया। यह फरवरी 1950 में ढाका और पूर्वी बंगाल के दंगों के प्रमुख कारणों में से शायद एक था।
19. गौरतलब है कि 10 फरवरी,
1950 को सुबह लगभग 10 बजे बजे यह दिखाने के लि ए कि कलकत्ता दंगे में उसके स्तन काट दि ये गये, एक महिला को लाल रंग से रंगा गया और उसे ढाका में पूर्वी बंगाल सचिवालय के पास लाया गया। तत्का ल ही सचिवालय के सरकारी कर्मचारियों ने काम रोक दि या और हिदंओुं के खि लाफ बदला लेने के नारे लगाते हुए जुलूस में शामि ल हो गये। जुलूस एक मील से अधिक की दूरी पर पहुँचते ही भीड़ बढ़नी शुरू हुई। यह दोपहर
12 बजे वि क्टो रिया पार्क में एक सभा में जाकर समाप्त हुआ, जहाँ अधिकारियों सहित कई वक्ताओं द्वारा हिदं ओु के खि लाफ हिसं क भाषण दि ए गए। इस परूे प्रकरण में दिलचस्प यह था कि जब सचिवालय के कर्मचारी बाहर जुलूस में नि कले थे, तो पूर्वी बंगाल सरकार के मुख्य सचिव अपने पश्चिम बंगाल के समकक्ष के साथ दोनों बंगालों में सांप्रदायि क दंगों को रोकने का रास्ता और जरिया तलाशने के लिए उसी भवन में एक बैठक कर रहे थे।
अधिकारियों ने की लुटेरों की मदद
20. दंगा
लगभग 1 बजे पूरे शहर में एक साथ शुरू
हुआ। आगजनी,
हिंदू दुकानों
और घरों
को लूटना
और जहाँ
भी मि ले, हिदंओुं की हत्या शहर के सभी हिस्सों में पूरी ताकत
के साथ शुरू हुआ।
मुझे मुसलमानों से
भी सबूत मि ला कि पुलि स उच्चाधिकारियों की उपस्थिति में भी आगजनी और लूटपाट की गयी थी। पुलिस
अधिकारियों की मौजदूगी म हिदंओुं के आभूषण
की दुकानों
को लूट लि या गया। उन्होंने लूट को रोकने
का प्रयास
नहीं किया
तथा सलाह और
निर् देशन
देकर लुटेरों
की मदद भी की। मेरे लिए दुर्भा ग्यपूर्ण था कि मैं उसी दि न, 10 फरवरी, 1950 को दोपहर बाद 5 बजे ढाका पहुँच गया। यह मेरे
लि ए अत्यंत नि राशाजनक था कि मुझे नि कट पक्षों
से चीजों को देखने और जानने का अवसर मि ला।
मैंने प्रथ म सूचना से जो कुछ देखा और जाना, वह
सीधे-सीधे चौंका देने वाला और हृदय वि दारक था।